अनजान मंज़िल ---
हिंदी,उर्दू कवितायें, شانتنوسانيال शांतनु सान्याल
Friday 9 July 2010
काश जान पाते
वो आदमी जो फूटपाथ पे
रात दिन, धुप छांव, गर्मी सर्दी
अपने हर पल गुज़ार गया
काश जान पाते उसके ख्वाबों में
ज़िन्दगी का अक्श क्या था //
वो शक्स रोज़ झुकी पीठ लिए
बड़ी मुश्किल से रिक्शा चलाता हुवा
कल शाम गिर कर उठ न पाया
काश जान पाते कभी उसके दिल में
सुबह की तस्वीर क्या थी //
वो चेहरा गुमसुम रेस्तरां में
आधी रात ढले काम करता रहा
उम्र भर गालियाँ सुनता रहा
काश जान पाते उसके बचपन के
हसीं लम्हात क्या थे //
एक बूढ़ा माथे पे बोझ लादे हुए
मुक्तलिफ़ रेलों का पता देता रहा
मुद्दतों प्लेटफ़ॉर्म में तनहा ही रहा
काश जान पाते उसकी
मंज़िल का पता क्या था //
शहर के उस बदनाम बस्ती में
पुराने मंदिर के ज़रा पीछे
मुगलिया मस्जिद के बहोत करीब
शिफर उदास वो बूढी निगाहें
तकती हैं गुज़रते राहगीरों को
काश जान पाते उसकी नज़र में
मुहब्बत के मानि क्या थे //
वृद्धाश्रम में अनजान
भूले बिसरे वो तमाम आँखें
झुर्रियों में सिमटी जिंदगी
काश जान पाते, वो उम्मीद की गहराई
जब पहले पहल तुमने चलना सिखा था //
वो मुसाफिरों की भीड़ , कोलाहल
जो बम के फटते ही रेत की मानिंद
बिखर गई खून और हड्डियों में
काश जान पाते के, उनके लहू
का रंग हमसे अलहदा न था //
सिसकियों की ज़बाँ भी होती है
करवट बदलती परछाइयाँ
और सुर्ख भीगी पलकों में कहीं ,
काश हम जान पाते खुद के सिवाय
ज़माने में ज़िन्दगी जीतें हैं और भी लोग //
----शांतनु सान्याल
Thursday 8 July 2010
कुछ पल विशेष
१.फिर महके महुवा वन, दूर छितिज में खोया मन
आदिम झरना,गहन अरण्य,ओ चाहें आत्मसमर्पण //
सजल नेह, प्रतिबिंबित प्रणय, उत्कंठित सांध्य प्रदीप
निशिपुष्प देह झकझोरे,उद्वेलित बाह्य अंतर दर्पण //
२.आग्नेयगिरी सम रह रह कर, हिय में उठे अभिलाष
बन श्रावणी मेघ सघन, बरसो तुम उन्मुक्त आकाश //
अभिशापित जीवन,तृषित ह्रदय, सुप्त हास परिहास
मुक्त करो अप्रत्यासित, मम स्मृति मोहपाश //
३.प्रतिध्वनित मौन --- मधु यामिनी शेष
आलिंगन बध्द देह --- छिन्न भिन्न अवशेष
परित्यक्त वासना ----- कुछ पल विशेष
शून्य जीवन परिधि --- नग्न सत्य परिवेश
प्रणय विनिमय ----- मधुरिम दीर्घ क्लेश //
----शांतनु सान्याल
आदिम झरना,गहन अरण्य,ओ चाहें आत्मसमर्पण //
सजल नेह, प्रतिबिंबित प्रणय, उत्कंठित सांध्य प्रदीप
निशिपुष्प देह झकझोरे,उद्वेलित बाह्य अंतर दर्पण //
२.आग्नेयगिरी सम रह रह कर, हिय में उठे अभिलाष
बन श्रावणी मेघ सघन, बरसो तुम उन्मुक्त आकाश //
अभिशापित जीवन,तृषित ह्रदय, सुप्त हास परिहास
मुक्त करो अप्रत्यासित, मम स्मृति मोहपाश //
३.प्रतिध्वनित मौन --- मधु यामिनी शेष
आलिंगन बध्द देह --- छिन्न भिन्न अवशेष
परित्यक्त वासना ----- कुछ पल विशेष
शून्य जीवन परिधि --- नग्न सत्य परिवेश
प्रणय विनिमय ----- मधुरिम दीर्घ क्लेश //
----शांतनु सान्याल
Wednesday 7 July 2010
इक नाम
हथेलियों में लिखा मेंहदी से वो नाम
धीरे धीरे अपने आप इक दिन छूट जायेगा
आँखों में जलन का बहाना
आंसुवों की आग कभी न बुझा पायेगा
ओ कोई मसीहा था यूँ ही
सलीब पे इक दिन कुर्बान हुवा
लुटा के सब कुछ सोचतें हैं लोग
आखिर क्या बात थी, जो मेहरबान हुवा /
----शांतनु सान्याल
धीरे धीरे अपने आप इक दिन छूट जायेगा
आँखों में जलन का बहाना
आंसुवों की आग कभी न बुझा पायेगा
ओ कोई मसीहा था यूँ ही
सलीब पे इक दिन कुर्बान हुवा
लुटा के सब कुछ सोचतें हैं लोग
आखिर क्या बात थी, जो मेहरबान हुवा /
----शांतनु सान्याल
Tuesday 6 July 2010
बंजारे बादल
जाने किस ओर मुड़ गए बंजारे बादल
देख सूखी रिश्तों की बेल, हम परेशां हुए *
जोगी जैसा चेहरा, मरहमी दुवागो हाथ
आमीन से पहले, जाने क्यों लहुलुहान हुए *
बूढ़ा बरगद, सुरमई सांझ और कोलाहल
पलक झपकते, जाने क्यों सब सुनसान हुए *
खो से गए कहीं दूर, मुस्कराहटों के झुरमुट
आईने का शहर, और भीड़ में हम अनजान हुए *
श्याह, खामोश, बेजान, बंद खिड़की ओ दरवाज़े
संग-ए-दिल, मुस्ससल दस्तक, हम पशेमान हुए *
ज़िन्दगी भर दोहराया,आयत,श्लोक, पाक किताबें
मासूम की चीख न समझे, हाँ बेईमान हुए *
जाने किस देश में बरसेंगे मोहब्बत के बादल
ये ज़मीं, गुल-ओ-दरख़्त, लेकिन वीरान हुए *
----शांतनु सान्याल
देख सूखी रिश्तों की बेल, हम परेशां हुए *
जोगी जैसा चेहरा, मरहमी दुवागो हाथ
आमीन से पहले, जाने क्यों लहुलुहान हुए *
बूढ़ा बरगद, सुरमई सांझ और कोलाहल
पलक झपकते, जाने क्यों सब सुनसान हुए *
खो से गए कहीं दूर, मुस्कराहटों के झुरमुट
आईने का शहर, और भीड़ में हम अनजान हुए *
श्याह, खामोश, बेजान, बंद खिड़की ओ दरवाज़े
संग-ए-दिल, मुस्ससल दस्तक, हम पशेमान हुए *
ज़िन्दगी भर दोहराया,आयत,श्लोक, पाक किताबें
मासूम की चीख न समझे, हाँ बेईमान हुए *
जाने किस देश में बरसेंगे मोहब्बत के बादल
ये ज़मीं, गुल-ओ-दरख़्त, लेकिन वीरान हुए *
----शांतनु सान्याल
Monday 5 July 2010
मायावी रात्रि
अपरिभाषित
सुदूर धूसर पहाड़ियों में, जब कभी दावानल धधक उठतें हैं ,
इक अजीब सी बेचैनी दिल के अन्दर होती है -
ओ फाल्गुनी रातें ,गर्म साँसों की तरह बहती बयारें
मध्य निशा ,रह रह कर चीखते मृग दल
सरसराते पीपल के सघन पत्ते , छाया पखेरू
थम थम कर रजनीगंधा का महकना
दूर तक परछाइयों का लगातार पीछा करना
ज़िन्दगी और मैं अक्सर अकेले में बातें करतें हैं
हिसाब करना बहोत ही मुश्किल है किसने, किसे, क्यों ?
मंज़िल से पहले ही धीरे से , खामोश चलते चलते
यूँ रास्ता बदल लिया अपना , जैसे कोई गुलदान टूट जाए
और हम कहें जाने भी दो ,शीशा ही था टूट गया -
टूटे रिश्ते और पहाड़ों में धधकती आग
बरसात का इंतजार नहीं करते
कौन किस गली में मिल जाये बादलों की तरह
जिसे बरसना है वो वादी और सेहरा में फर्क नहीं करते
हमें भी जीना है चाहे रात लम्बी हो या चंद लम्हात की
हिरण की दर्द भरी चीखें काश हम समझ पाते /
----शांतनु सान्याल
सुदूर धूसर पहाड़ियों में, जब कभी दावानल धधक उठतें हैं ,
इक अजीब सी बेचैनी दिल के अन्दर होती है -
ओ फाल्गुनी रातें ,गर्म साँसों की तरह बहती बयारें
मध्य निशा ,रह रह कर चीखते मृग दल
सरसराते पीपल के सघन पत्ते , छाया पखेरू
थम थम कर रजनीगंधा का महकना
दूर तक परछाइयों का लगातार पीछा करना
ज़िन्दगी और मैं अक्सर अकेले में बातें करतें हैं
हिसाब करना बहोत ही मुश्किल है किसने, किसे, क्यों ?
मंज़िल से पहले ही धीरे से , खामोश चलते चलते
यूँ रास्ता बदल लिया अपना , जैसे कोई गुलदान टूट जाए
और हम कहें जाने भी दो ,शीशा ही था टूट गया -
टूटे रिश्ते और पहाड़ों में धधकती आग
बरसात का इंतजार नहीं करते
कौन किस गली में मिल जाये बादलों की तरह
जिसे बरसना है वो वादी और सेहरा में फर्क नहीं करते
हमें भी जीना है चाहे रात लम्बी हो या चंद लम्हात की
हिरण की दर्द भरी चीखें काश हम समझ पाते /
----शांतनु सान्याल
Sunday 4 July 2010
नज़्म نزم
نزم
नज़्म
इतना न चाहो मुझे
के भूल जावूँ ये कायनात
अभी तो तमाम उम्र बाकी है
थमी थमी सी साँसें
बहकते जज्बात ज़रा रुको
अभही तो इश्क-ए असर बाकी है
टूट के बिखर न जाये कहीं
हसरतों के नायब मोती
अभी तो जहाँ की नज़र बाकी है
वजूद से कुछ फास्लाह रहे
इक हलकी सी चुभन दरमियाँ हो
अभी तो लम्बी सी रहगुज़र बाकी है
شانتنو سانيال ----शांतनु सान्याल
नज़्म نزم
नज़्म نزم
जिसे हम नजदीक समझते थे
जाने कब बहोत दूर हुवा
ज़िन्दगी के सीड़ियों में
ओ अचानक मिल भी जाये तो क्या
हमने अपना चेहरा न देखा
मुद्दतों आईने में
इक अजनबी की तरह
करीब से गुज़र जायेंगे
न कोई आवाज़, न अहसास बाकी
पलकों से टूट कर
धीरे से बिखर जायेंगे
شانتنو سانيال -
शांतनु सान्याल
जिसे हम नजदीक समझते थे
जाने कब बहोत दूर हुवा
ज़िन्दगी के सीड़ियों में
ओ अचानक मिल भी जाये तो क्या
हमने अपना चेहरा न देखा
मुद्दतों आईने में
इक अजनबी की तरह
करीब से गुज़र जायेंगे
न कोई आवाज़, न अहसास बाकी
पलकों से टूट कर
धीरे से बिखर जायेंगे
شانتنو سانيال -
शांतनु सान्याल
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