Sunday 4 July 2010

नज़्म زم

नज़्म      زم

इक आग की बारिश
बेकराँ रात की ख़ामोशी
ज़माने  से बेकौफ
इक साथ ज़हर पीने की ख्वाहिश 
न चाँद नज़र आया
न शब् का गुज़ारना याद रहा
उफक पे हंगामा सा बरपा
मुक्तसर रात और तवील ज़िन्दगी
यूँ गुज़री हम अपना अक्श भूल गए
मस्जिद ओ मंदिरों में इश्तेहार 
गुमशुदगी का लगा गया कोई
हर शु थे आशना चेहरे
हम अपना ठिकाना भूल गए
 ايس سانيال --शांतनु सान्याल


































 



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